Sunday, August 10, 2008

दिल से तेरी निगाह


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रजामंद कर गई

शक हो गया है सीना खुसहा लज्ज़त-ऐ-फ़राग
तकलीफ-ऐ-पर्दादारी ऐ ज़ख्म-ऐ-जिगर गई

बादा-ऐ-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिए बस अब के लज्ज़त-ऐ-ख्वाब-ऐ-सहर गई

फिरे है ख़ाक मेरी कू-ऐ-यार में
बारे अब ये हवा, हवस-ऐ-बाल-ओ-पर गई

तो दिल फरेबी-ऐ-अन्दाज़-ऐ-नक्श-ऐ-पा
मौज-ऐ-खिराम-ऐ-यार भी क्या गुल क़तर गई

हर बुलहवस ने हुस्न परस्ती शिआर की
अब आबरू-ऐ-सहेवा-ऐ-अहल-ऐ-नज़र गई

नजारे ने भी काम किया वां नकाब का
मस्ती से हर निगाह तेरे रुख पर बिखर गई

फर्दा-ओ-दीं का ताफर्रूका यक बार मिट गया
कल तुम गए के हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने 'असदुल्लाह खां" तुम्हें
वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई
-- ग़ालिब
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